एक शताब्दी से भी अधिक गुजरे जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे तो उन्होंने चरखा देखा तक नहीं था। मगर स्वदेशी आंदोलन के दौरान वह राष्ट्रीय जीवनशैली का अनुसरण करते हुए बड़े मनोयोग से चरखा चलाने लगे थे।
समय के चक्र के साथ एक समय ऐसी भी आया जब खादी की चमक फीकी पड़ गयी. मगर आज खादी एक बार फिर फैशन में है।
पिछले तीन वर्षों में खादी की बिक्री के आंकड़ों के भारी-भरकम पिटारे को खंगालते हुए खादी और ग्राम उद्योग आयोग (केवीआइसी) ने बताया है कि वित्त वर्ष 2016-17 में खादी उत्पादों की बिक्री करीब 33 प्रतिशत की बढ़ोतरी के साथ 2,005 करोड़ रुपये के स्तर पर पहुंच गयी जबकि इससे पिछले साल यह 1,510 करोड़ रुपये रही थी. ब्रिकी के आंकड़ों में जबरदस्त उछाल को देखकर आलोचकों के मन में भले ही संशय हो, लेकिन वस्तु स्थिति और वास्तविकता का अनुमान किसी भी खादी भंडार या खादी बिक्री केन्द्र पर खरीदारी के लिए आए लोगों की उमड़ती भीड़ और उनके फूट फॉल्स के आंकड़ों से लगाया जा सकता है।
हाल ही में अपनी कुदरती रंगत और अनगढ़-सी बुनावट वाले खादी के धागों से बने वस्त्र एक बार फिर तब से लोगों के आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं जब तीन साल पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आकाशवाणी पर अपने कार्यक्रम ‘मन की बात’ में खादी का जिक्र किया था. जाहिर है उन्होंने अपने भाषण में खादी के प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी।
प्रधानमंत्री हमेशा लोगों से अनुरोध करते हैं कि वे अपने मित्रों को उपहार में फूलों का गुलदस्ता भेंट करने की बजाय खादी की बनी वस्तुएं और पुस्तकें दें क्योंकि फूल तो कुछ ही देर में मुरझा कर नष्ट हो जाते हैं. वे केन्द्र, राज्य सरकारों और आम लोगों को इस बात का स्पष्ट संकेत देते हैं कि खादी को राष्ट्रीयता की भावना से बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
हाल में खादी और ग्राम उद्योग आयोग ने एक बयान में कहा था, ‘’वर्ष 2016-17 में खादी उत्पादों की बिक्री में जबरदस्त उछाल दर्ज किया गया. हमें सरकारों, कंपनियों, स्कूल-कालेजों और राज्य सरकारों आदि की तरफ से भारी-भरकम ऑर्डर मिल रहे हैं. 2018-19 के अंत तक हम 5,000 करोड़ रुपये की बिक्री के लक्ष्य को हासिल कर लेंगे।’’
खादी और ग्राम उद्योग आयोग अपने उत्पादों की विदेशों में बिक्री बढ़ाने के लिए निर्यात प्रकोष्ठों की स्थापना भी कर रहा है।
खादी के बारे में आम धारणा है कि यह महात्मा गांधी की गौरवशाली विरासत है और राष्ट्रीय स्वतंत्रता का सशक्त माध्यम रही है। यह हमारी ‘नैतिकता और जातीयता’ दोनों से जुड़ी है। इसकी सबसे बड़ी खूबी जिसकी वजह से यह बिकती है, वह यह है कि यह कुदरती है, हाथ से तैयार की जाती है, पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल है, जैव-अपघटनीय (यानी सड़कर नष्ट हो जाने वाली) है और इस रेशे को बनाने में किसी के शोषण का सहारा नहीं लिया जाता।
खादी एक ऐसा कपड़ा है जो हाथ से काते गये धागे से ही बनाया जाता है। इसे बनाने में सूत, ऊन और रेशम का इस्तेमाल किया जाता है। धागे में घुमाव की दिशा से खादी की पहचान की जा सकती है। खादी के धागे में घुमाव की दिशा अंग्रेजी के ‘S’ अक्षर की तरह होती है जिसे आम तौर पर बांयी ओर का या घड़ी की सूइयों की विपरीत दिशा का घुमाव माना जाता है।
इस समय देश में 1.42 लाख बुनकर और 8.62 लाख कातने वाले कारीगर हैं। इनमें से बहुत से अपने हुनर के लिए अच्छे मेहनताने की मांग करते हैं। एक अनुमान के अनुसार 9.60 लाख चरखों और 1.51 लाख करघों में खादी बनती है।
अधिकारियों का कहना है कि पिछले तीन वर्षों में खादी और ग्राम उद्योंगों में रोजगार में 13 लाख लोगों का इजाफा हुआ है। इस साल 31 मार्च को इस क्षेत्र में कुल 144 लाख लोगों को रोजगार मिल रहा था। खादी कारीगरों के लिए कर्मशालाएं उपलब्ध कराने के कार्यक्रम के तहत खादी और ग्राम उद्योग आयोग ने 43.15 करोड़ रुपया जारी किया जिससे 9,057 कारीगरों को लाभ हुआ।
इसी तरह मौजूदा कमजोर खादी संस्थाओं को सुदृढ़ करने तथा विपणन के बुनियादी ढांचे के निर्माण में मदद के लिए खादी और ग्राम उद्योग आयोग को पिछले तीन वर्षों में 15.50 करोड़ रुपये दिये गये जिससे 108 खादी संस्थाओं और 187 खादी बिक्री केन्द्रों का जीर्णोद्धार किया गया।
खादी और ग्राम उद्योग के उत्पादों का उत्पादन निजी स्वावित्वव वाली करीब सात लाख कुटीर इकाइयों में होता है जिनके लिए प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम से आर्थिक सहायता प्राप्त होती है।
प्रधानमंत्री मोदी ने तीन साल पहले आकाशवाणी से प्रसारित ‘मन की बात’ कार्यक्रम में लोगों से कम से कम एक खादी वस्त्र खरीदने का अनुरोध किया था। उन्होंने उसी वक्त यह भी स्पष्ट कर दिया था कि वे उनसे पूरी तरह खद्दरधारी बनने को नहीं कह रहे हैं बल्कि सिर्फ इतना अनुरोध कर रहे हैं कि त्योहार के अवसर पर कोई न कोई खादी वस्त्र धारण करें।
केंद्रीय सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्री ने बताया था कि प्रधानमंत्री की अपील के बाद अक्तूबर 2014 से मार्च 2015 तक खादी की बिक्री में 17.55 प्रतिशत की जबरदस्त बढ़ोतरी हुई। अपील के बाद खादी उत्पादों का उत्पादन करीब 6 गुना बढ़ गया। अक्तूबर 2014 से मार्च 2015 तक की अवधि में इससे पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में उत्पादन में 31.1 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी। सार्वजनिक उद्यमों और कंपनियों, जैसे दिल्ली पुलिस, एयर इंडिया, एनटीपीसी, प्रधानमंत्री कार्यालय, ओएनजीसी और रेलवे आदि से बड़ी तादाद में एकमुश्त सप्लाई के लिए बल्क ऑर्डर मिले।
खादी और ग्राम उद्योग आयोग की स्थापना 1957 में भारत की आजादी के वस्त्र खादी की अनोखी खूबियों का फायदा उठाने, ग्रामीण हस्तशिल्पियों के उत्थान और खादी कार्यक्रम को देश की नियोजन प्रक्रिया के साथ समन्वित करने के उद्देश्य से की गयी थी।
आज खुरदरे खादी वस्त्र के साथ-साथ हाथ के कते हाई काउंट धागे से बने वस्त्रों की बड़ी मांग है और खादी का फैशन जोर पकड़ता जा रहा है। अब खादी जबरदस्त ‘फैशन स्टेटमेंट’ यानी फैशनेबल लोगों की पहचान बनने की दिशा में आगे बढ़ रही है।
खादी के अंतर्गत आने वाले कार्यक्रमों में खादी और ग्राम उद्योग आयोग की केन्द्रीय क्षेत्र की विभिन्न योजनाओं द्वारा समर्थित ये विकास कार्यक्रम शामिल हैं -– बाजार विकास सहायता (एमडीए), ब्याज सब्सिडी पात्रता प्रमाणपत्र (आईएसईसी), खादी पॉलीवस्त्र योजना, पारंपरिक उद्योगों को पुनर्जीवित करने के लिए धन की व्यवस्था की योजना (एसएफयूआरटीआई), खादी सुधार और विकास कार्यक्रम (केआरडीपी), खादी कारीगरों के लिए कर्मशाला योजना, आम आदमी बीमा योजना, खादी कारीगर जनश्री बीमा योजना (जेबीवाई), दुर्बल खादी संस्थाओं के बुनियादी ढांचे को सुदृढ़ करने की योजना और कच्चा माल प्रबंधन कार्यक्रम के तहत विपणन ढांचे के विकास की योजना, आदि।
नये आदर्श चर्खा कार्यक्रम के तहत बेहतरीन कच्चे माल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए खादी और ग्राम उद्योग आयोग ने कुट्टूर (केरल), चित्रदुर्ग (कर्नाटक), सिहोर (मध्य प्रदेश), एटा और राय बरेली (उत्तर प्रदेश) और हाजीपुर (बिहार) में छह सेंट्रल सिल्वर प्लांट्स स्थापित किये हैं।
अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में महात्मा गांधी ने कहा था : 1908 में ‘हिंद स्वराज’ में जब मैंने चरखे या हथकरघे को भारत में मुफलिसी को दूर करने की रामवाण दवा बताया था तो मुझे याद नहीं कि तब तक मैंने कभी इन्हें देखा था। असल में 1915 में जब मैं दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटा तब भी मैंने चरखा नहीं देखा था। 1917 में मेरे गुजराती मित्र मुझे भरुच शिक्षा सम्मेलन की अध्यक्षता करने के लिए वहां लेकर गये। यहीं मेरी मुलाकात एक विलक्षण महिला गंगा बेन मजूमदार से हुई जिन्होंने....ईमानदारी से चरखे की तलाश लगातार जारी रखने का वचन लेकर मेरा बोझ हल्का कर दिया।
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